Book Title: Maa
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Mahima Lalit Sahitya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 57
________________ ४६ भीमुझे कंठस्थ हैं कि "माँ की सेवा ईश्वर की ही सेवा है"। आपके नेत्रों के सामने खड़े वृक्ष पर आपने कभी चिन्तन किया ! जो सहस्रों लक्षों वर्षों की शीर्षासन सजा को पाया हुआ माँ पर किये गये दुष्कर्मापराधी जीव ही तो है न ? स्वरूप से दिगम्बर तप्त ताप के मध्य में । मस्तक नीचे, पैर ऊपर । गगन को पैर मारने की आकांक्षा लिए हुए मूल (माथा) से जल पीता है, भूमि को चीर कर जो भूमि का रक्त है। वह भी चूस-चूस कर । पापी महापापी....' 'माँ का कर्मापराधी..... ध्यान रहे यह शीर्षासन नहीं । माँ को नमन न करने पर कर्मराज का क्रू र महादंड ! दुष्परिणाम आपने भी उसके प्रति लघुता की भावना नहीं रखी । जो कभी नमा नहीं उसे कर्म क्या यह सजा नहीं देगा। "जहाँ नम्रता से काम निकल जाए, वहां उग्रता नहीं दिखानी चाहिए" (प्रेमचन्द) कहावत भी है अभिमान की अपेक्षा नम्रता अधिक लाभकारी है। बड़ों के प्रति नम्रता कर्तव्य है, समकक्ष के प्रति विनय सूचक है, छोटों के प्रति कुलीनता की द्योतक एवं सबके प्रति सुरक्षा है । आपने सर टी० मूर का नाम तो सुना है। उन्होंने भी कहा था-To be humble to superious is duty, to equals courtesy, to inferiors nobleness, and to all safety, संत कबीर ने कहा भी है "सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय । जस द्वितीया को चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥" "नमो इति उग्रम्" नमस्कार यह उम्र प्रकार की माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने की साधना है। अयोग्य को मस्तक नमाना पाप है तो योग्य को मस्तक न नमाना महापाप है। माँ को मात्र अपना पूत्र ही प्यारा होता है। पिता से मां यही विनती करती है "प्रियतम ! बतला दो ! मेरा लाल कहाँ हैं, अनगिनत अनचाहे रत्न लेकर क्या करूंगी, मम परम अनठा लाल ही नाथ ला दो।" संत विनोवा भावे का उद्घोष है कि "माँ की सेवा हेतु धन की आवश्यकता नहीं होती, यदि आवश्यकता है तो सिर्फ स्वयं संकुचित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128