Book Title: Maa
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Mahima Lalit Sahitya Prakashan

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Page 33
________________ शक्तिरहित होने के कारण कंगूरा गिर जायेगा, जीवन विध्वंस हो जायेगा। भवन की नींव में कोई भी ईट लगाई जाती है वह कंगरे को मनमोहक बनाने के लिए लगायी जाती है। उसी प्रकार मां कोई भी और कैसा भी प्रयत्न करती है तो पुत्र का निःश्रेयस करने के लिए करती है। माँ पुत्र में भी हार-जीत होती ही रहती है। अपने किसी प्रतिपक्षी को दबाकर अपने मनोऽनुकूल उद्देश्य तक पहुंच जाये तो उसको विजय कहते हैं और..'जब विरोधी प्रबल हो जाये और अपने को हमारे लक्ष्य तक नहीं पहुंचने दे। ऐसी परिस्थिति में वे तब अपने आक्रोश एवं निराश होकर स्वयंकी पराजय स्वीकार कर लेते हैं। मनुष्य के प्रयत्नों का अन्तिम किनारा हार या जीत ही तो है ! क्यों भैया। असत्य तो नहीं कहा ! "बराबर''। __ शेष तो कर्म प्रवाह संघर्ष है या प्रतिपक्ष को अधीन करने की लड़ाई है। वह अपने प्रयत्नों की सफलता के लिए इसलिए चिंतित होता ही रहता है। हाँ यदि आप व्याकुल न हों तो आपका संघर्ष निर्वल हो सकता है और अनुकल व उपयुक्त वातावरण सम्प्राप्त होते ही प्रतिपक्ष उसको दबा सकता है। परन्तु सर्व संघर्षों में यह जटिल बात घटित नहीं हो सकती। जहां माँ-पुत्र का रूप हो तो वहां यह समस्या अधिक विषम हो जाती है। नितांत छोटी से छोटी बातों व कार्यों में भी उसकी परीक्षा कर सकते हैं । जैसे : आह्लाद ही आह्लाद ! दोनों प्रसन्न। माँ मस्ताने लड़के को खिला रही है । लुका-छिपी की क्रीड़ा कर रहे हैं। बेटे से मां पराजित हो गई, लेकिन वह बुरा नहीं मानती। हार होने पर भी उसके साथ प्रेम। वह भी अपरिमित । यद्यपि यहाँ बालक के साथ एक प्रकार की विरोधी भावना ही होती है परंतु लड़ाई की नहीं । प्रतिपक्षी होते हुए भी उसके प्रति प्रीति और उसको महान् मनुष्य बनाने की भावना अत्युत्कृष्ट होती है । जैसा कि एच. डब्ल्यू. बीचर ने कहा कि “जननी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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