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वह हर पल ध्यान रखती है। स्वयं कीचड़ में रहकर पुष्प को प्रस्फुटित करने की सोचती रहती है। लोग पेशाब खाना समझकर उस पर पेशाब करते हैं परन्तु वह बिना किसी की चिन्ता किए आकाश की भाँति स्वावलम्बी बनकर पुष्प को कीचड़ कांटों से बचाकर,
बड़ा कर उससे कहती है कि हे पुष्प तुम यहीं आकांक्षा करना किया तो तुम वीतराग के चरणों में समर्पित होकर मुझे धन्यकर देना अथवा राष्ट्र की सेवा में लग जाना । राष्ट्रकवि श्री माखनलाल चतुर्वेदी का " पुष्प की अभिलाषा" गीत जिसे सुनकर अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध भारतीय जन मानस को देश भक्ति हेतु प्रेरित कर दिया था । " चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गथा जाऊँ । चाह नहीं, प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ ॥ चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि डाला जाऊँ । चाह नहीं, देवों के सिर चढू, भाग्य पर इठलाऊँ ।।
मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ में देना तुम फेंक । मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक ।। " यदि जड़ गीली हो तो ऊपर पुष्प में शुष्कता कैसे बनेगी । यदि घड़ा जल से भरा हो और बाहर उसमें नमी न हो, यह तो असम्भव है
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यही बात माँ के लिए हैं । सर्वप्रथम प्रान्तरिक स्थान (गर्भ) में बच्चे की उत्पत्ति होती है । तत्पश्चात् बाह्य जन्म होता है । कितना कष्ट, भयंकर दुःख । दुःख ही दुःख । लेकिन कोई चिन्ता नहीं । " सचमुच सब कुछ हार गयी वह, जिसने हिम्मत हारी है । कमर कसी और कूद पड़ी जो,
उसने बाजी मारी है ॥ " क्योंकि वह जानती है कि देश की सबसे छोटी इकाई व्यक्ति, जिसका निर्माण राष्ट्र का निर्माण है । जब व्यक्ति का निर्माण होगा
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