Book Title: Maa
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Mahima Lalit Sahitya Prakashan

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Page 38
________________ २७ माँ उपकार करती है पर निःस्वार्थ भाव से। उपकार भी इसी भावना से करना चाहिए। यदि उसके बदले में लेने की भावना हो तो वह उपकार, उपकार नहीं कहलाता। कविवर रहीम ने भी यही कहा है "यो रहिम सुख होत है, उपकारी के अंग। बांटन वारे के लगे, ज्यों मेंहदी को रंग ॥" एक नदी के तट पर बुढ़िया माँ ने एक झोंपड़ी बनाई। झोंपड़ी इतनी छोटी थी कि उसमें एक ही व्यक्ति रह सकता था। एक दिन मूसलाधार वर्षा हुई। माई भीतर बैठी हुई थी। एक व्यक्ति तीव्र गति से दौड़ता हुआ पाया और झोंपड़ी के द्वार से लगकर खड़ा हो गया । वह ठंड के मारे ठिठुर रहा था। __माई ने भीतर बैठे-बैठे आवाज लगाई–बेटा ! जल्दी भीतर आ जागो । अपने भीगे वस्त्रों को उतार कर इन्हें पहन लो और यहीं पर रहो। जब तक वर्षा न रुक जाय । सिकुड़ कर बैठ जाओ और वर्षा का समय व्यतीत करो। वाह ! हृदय में एक अपरिचित के प्रति इतनी सहानुभूति, करुणा और परोपकार की भावना है तो स्वयं के पुत्रके प्रति । वेद व्यासजी ने कहा है कि-"परोपकारः पुण्याय", परोपकार जैसा कोई पुण्य नहीं है। भक्ति काल के महाकवि तुलसीदास जी तो डंके की चोट कहते हैं “परहित सरिस धर्म नहिं कोई" स्वयं के सुख स्वार्थ का परित्याग करके पुत्र-पुत्री के लिये छत्रके रूप में निर्मित होने वाली और उसकी जीवन-वाटिका को सुवासित करने वाली, उसी में ही तन्मय होकर उसी के सदृश बनने वालो और उसके जीवन को सुगन्धित पुष्पों से सजाने वाली मालिन की तरह माँ सन्तानों के सुख में सुखी और दुःख में दुःखी होती रहती है। माँ अकेली होती है परन्तु सफर उसका व उसके पुत्र का लम्बा होता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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