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दीपक - रहित मन्दिर, घृत बिन भोजन और अहिंसा- रहित राष्ट्र कैसा ? शशि- रहित रैन, रैन बिन रजनी, बिना रजनी के शशि भी कैसा ? यही नहीं कुच रहित हार, हार विना काजल और काजल बिन श्रृंगार भी कैसा ? सत्य कहता हूँ कि पुत्र बिन माँ, माँ-रहित परिवार कैसा ?
जन गण मन के अमर शब्दों में शिल्पी कवीन्द रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा- जीवन की महत्वाकाक्षाएँ बालकों के रूप में प्राती हैं इसीलिए माँ बालकों की सेवा और उन्हें प्र ेम देने में हिचकती नहीं ।
शिशु की सेवा करने से माँ को 'शक्ति' और सदा सम्मान देने के कारण उसे 'माता' कहते हैं । प्राचीन भारतीय धार्मिक शास्त्र भी पुकारते हैं ।
"शिशोः शुश्रूषणाच्छक्तिर्माता
स्थानान्मानाच्च सा ||" ( स्कंदपुराण)
माँ का बालक, प्रकृति की अनमोल देन है । सुन्दरतम कृति है, सवसे निर्दोष वस्तु है। बालक मनोविज्ञान का मूल है, शिक्षक की प्रयोगशाला है । मानव जगत् का निर्माता है । बालक के विकास पर दुनिया का विकास निर्भर है। बालक की सेवा विश्व की सेवा है ।
"बालक राष्ट्र की मुस्कराहट है।" महान् भारतीय राजनीतिज्ञ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने उक्त बात ठीक ही कही है । बच्चे राष्ट्र को आत्मा हैं, क्योंकि यही हैं, जिनको लेकर राष्ट्र पल्लवित हो सकता है, यही है, जिनमें प्रतीत सोया हुआ है, वर्तमान करबटें ले रहा है और भविष्य के अदृश्य बीज बोये जा रहे हैं ।
ऐसे बालकों पर अविरल वात्सल्य वर्षा कर और उसके बदले में कोई भी मनोकांक्षा रहित अभिलाषा के बिना बालक को अनेक महा दुःख सहन कर वृहद् त्याग करने वाली माँ का मूल्य कोई माई का लाल आंक सकता है ? अनवरत अव्याहत अनेक प्रतिकूलताएँ, विडम्बनाएँ और कठिनाइयां सहन करके भी राष्ट्र की सबसे छोटी इकाई इन्सान
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