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का हृदय बालक की पाठशाला होता है" उसके अन्तर में अनुकम्पा को वृत्ति होती है और मन में कलुष भाव नहीं होते हैं ।
"अनुकम्पा संसिदो य परिणामो चिन्तहि पत्थि कलुसं।" परम भक्त कवयित्री मीराबाई गाती थीं
"प्रीति की रीति निराली" उपकार, करुणा, सम्वेदना और पवित्रता माँ के हृदय में युग-युग से सेमाहित है। मां कभी उपकार की विना से कुछ नहीं करती है। वह तो उसका स्वतः प्रवर्तित स्रोत है। करुणा तो माँ के तन-मन और आत्मा से क्षण-क्षण में ही उमडती रहती है। सम्वेदना ही वास्तव में माँ की प्रतिकृति है। माँ की सम्वेदना ने कभी अपने और पराये में भेदभाव नहीं रखा है। पवित्रता माँ के अंग अंग से झलकती है। उसका स्निग्ध हृदय मस्तक की पवित्र दीप्ति बनकर चमकता है। इसीलिए इन सब गुणों का साकार दर्शन माँ की ममता में होता है। मेरी भी यही भावना है
ममता से भरी माँ को देख, हृदय मेरा नत्य करे। ऐसी पावन मां की सेवा में, मुझ जोवन का अर्घ्य रहे ।।
माँ ! कोई इसे माँ कहता है तो कोई माता व जननी से सम्बोधित करता है। कोई मम्मी तो कोई मातृ, अम्मा, मातु, माईका,मदर, बू, वाल्दा आदि से । कितने बताऊँ........ उनकी कोई संख्या-सीमा नहीं। यद्यपि नाम विभिन्न हैं लेकिन सत्यता यह है कि ये सब नाम माँ के ही हैं। "मडे मुडे मति भिन्ना"। अरे मां को तो छोड़ो परमात्मा भी विभिन्न नाम वाला है । अधोलिखित परात्म सम्बोधन का वाचन करें, जिसमें षट् दर्शनों को स्पष्ट किया गया।
" शैवा: समुपासते शिव इति ब्रह्मति वेदान्तिनो। बौद्धा बुद्ध इति प्रमाण पटवः कर्तेति नैयायिकाः । अह नित्यथ जैन शासनरताः कर्मेति मीमांसकाः । सोऽयं वो विदधातु वांच्छित फलं त्रैलोक्यनाथः प्रभुः ।।"
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