Book Title: Maa
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Mahima Lalit Sahitya Prakashan

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Page 29
________________ १६ रहा था । इतने ही में लड़कों का एक झुण्ड चिल्लाता हुआ उसकी हवेली की ओर ही आता दिखाई दिया। उनके बीच में मैले-कुचले वस्त्रों वाली कोई स्त्रो पुकार रही थी किन्तु बच्चों की आवाज में उसकी आवाज सुनाई नहीं दे रही थी । वह साध्वी पत्थर या स्तम्भ जो भी देखती अर्हन्नक ग्रन्नक कहती हुई उसके साथ चिपक कर बिलख पड़ती । वाह रे ! माँ का प्रेम । उस हवेली के निकट प्रा ही एक स्तम्भ से अर्हन्नक- अर्हन्नक बोलती हुई लिपट गई उसका माथा फूट गया । उसमें से रुधिर की धारा बहने लगी और वह बेहोश हो गिर पड़ी । उद्दण्ड बालकों के लिए तो यह प्रतिदिन का दृश्य था । अतः उन्हें कोई दया नहीं आई परन्तु ऊपर बैठे प्रर्हन्नक से यह सहन नहीं हुआ। वह शीघ्रता से दौड़ते हुए नीचे आए। उस समय साध्वी कुछ सचेत हा गई और मन्द स्वर से अर्हन्नक- अर्हन्नक बोल रही थी । ग्रन्नक ने देखा यह तो अपनी ही प्यारी माँ, पवित्र साध्वी भद्रा सती है । I माता ! तुम्हारी यह दशा ! किसने की ? वह एक वस्त्र के पल्ले से हवा करने लगा । प्रांखों में प्रश्रनों की अजस्र धारा प्रवाहित हो गई । भद्रा अभी सचेत अवस्था में भी अर्हन्नक-ग्रर्हन्नक का जाप कर रही थी । उसके अन्तर में, उसकी नाड़ी में, उसकी नस-नस में अन्न का ही स्मरण था । सचेत होते ही अर्हन्नक उसके चरणों में गिर पड़ा। उसने कहा - माँ यह रहा तुम्हारा हतभागा अर्हन्नक ! जिसके लिए तुम सब कुछ परित्याग कर गली-गली में भटक रही हो । मेरे मानव जीवन को धिक्कार है । मेरे जैसे पुत्र को धिक्कार है कि उसने स्व कर्त्तव्य को त्याग दिया। श्रह माँ ! .....ग्रह माँ ! अर्हन्नक ने लज्जा से नतमस्तक होकर कहा - माँ ! मैं साधु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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