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सत्य, प्रेम और सेवा के पक्षपाती सत्यसमाजियों के लिये तो यह धर्म-ग्रंथ के समान है ही पर उदार विचार के हरएक हिन्दू, मुसलमान, जैन, बौद्ध, ईसाई, पारसी, सिक्ख आदि के लिये भी यह कर्तव्य-शास्त्र का काम दे सकती है ।
कृष्णगीता करीब सवा दो वर्ष तक सत्यसन्देश में ( सन् १९३७-३८-३९) प्रकाशित होती रही । उसीके अनुसार हर मास थोड़ी थोडी बनती रही। अब उसे पुस्तकाकार प्रकाशित करते हुए हर्ष होता है।
बहुत सावधान रहने पर भी 'प्रेस-पिशाचों' के शिकार से नहीं बचा जा सका इसके लिये शुद्धि-पत्र साथ में दे दिया गया है ।
आशा है हमारे गुण-ग्राही पाठक इस प्रयत्न की कद्र करेंगे।
वसंतोत्सव १९९५ । सूरजचन्द सत्यप्रेमी [ डाँगी] सत्याश्रम वर्धा, [ सी. पी.] बड़ी सादड़ी (मेवाड़)