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कृष्ण-गीता स्वकर्तव्य करते रहें भले सहें फिर पीर । यहां नहीं तो है वहां बने रहें कुछ धीर ॥७२॥ अजब काई धर्म की कभी न मारी जाय । यह हुंडी ऐसी नहीं जो न सिकारी जाय ॥७३॥ इस जीवन का कष्ट सब है क्षणभर का कष्ट । क्षणभर के सुख के लिये समता करें न नष्ट ।।७४॥ कालचक्र है अवनि-सम जीवन रेणु-समान । एक रेणुकण के लिये क्यों हों चिन्तावान ||७५|| यही व्यापिका दृष्टि है आत्म-तत्व का अर्थ । बाकी वादविवाद सब शक्ति-क्षीणकर व्यर्थ ॥७६॥ अगर न पाई दृष्टि यह व्यर्थ आत्म-गुण-गान | जो थोड़े में फँस रहा वही बना नादान ॥७७॥ जीवन बलि हो जाय यह कर मत कुछ पर्वाह । बस अपना कर्तव्यकर चल जनहितकी राह ॥७८॥ जिसने पाया अर्थ यह उसे मिला परलोक । रहा कर्म में लीन पर हुआ न अणुभर शोक ||७९|| आत्मा माने या नहीं है उसका कल्याण । उसने पाया धर्म से आत्मवाद का प्राण ॥८०॥ आत्म-अनात्म-विवाद है दर्शन का ही अंग । इस विवाद को कर नहीं धर्मशास्त्र के संग ॥८१॥ नाम लिया परलोक का किये ओट में पाप । 'मत' अनात्मवादी तभी बनत अपने आप ॥८२॥ आत्मवाद के साथ में रह न सकेगा पाप । अगर पाप है तो लगी बस अनात्मकी छाप ॥८३॥