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तेरहवाँ अध्याय .
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आत्मा माने या नहीं अगर नहीं है पाप । आत्म-ज्ञान वह पागया दूर हुए सब ताप ॥८४॥ पारलौकिकी सृष्टि की सारी चिन्ता छोड़ । जा अपना कर्तव्य है उससे नाता जोड़ ॥८५॥ कहां बसा परलोक है इसका कर न ख़याल । तुझे फँसा ले जायगा दुष्ट वितंडा-जाल ॥८६॥ यदि यह जीवन धर्ममय ता पर-जाम महान । होता है सद्धर्भ का सुख में पर्यवसान ॥८७॥ इतना ही विश्वासकर ले यह जन्म सुधार । सब धर्मीका ध्येय है हो सुखशान्ति अपार ॥८८॥ जब समाज के बीचमें छा जाते हैं पाप । सत्य-अहिंसा-पुत्र तब आते अपनेआप ॥८९॥ दूर हटावें जगत के जो नर अत्याचार । वे कहलाते हैं यहां तीर्थंकर अवतार ॥२०॥ चलकर दिखलाते सुपथ बतलाते सदुपाय । मिट जाते हैं अन्त में अन्यायी। अन्याय ॥९१।। कष्ट यहां के नष्ट हो सब धर्मों का ध्येय । इसी ध्येय की पूर्ति को चर्चा चले अमेय ॥१२॥ दुनिया का उद्धार कर पाप-प्रगति दे रोक ।
बिना कहे आजायगा मुठी में पर-लोक ॥९३।। अर्जुन-
द्वैताद्वैत मुक्ति ईश परलोक की चिन्ता कर दी दूर । एक बात पर कर रही मनको चकनाचूर ॥९४॥