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चौदहवाँ अध्याय ऋषि मुनि आदिक दे गये अपन युग का ज्ञान । आज ज़रूरी क्या यहां कर इसकी पहिचान ॥४०॥ धर्म-परीक्षण है यही यही शास्त्र का बोध । यह विवेक का कार्य है यही वेद की शोध ॥४१॥ यदि विवेक आया नहीं व्यर्थ शास्त्र का ज्ञान । सब शास्त्रों का मर्म है हित-अनहित पहिचान ॥४२॥ सहज तर्क सब को मिला कर उसका उपयोग । धर्म परीक्षण कर सदा मिटे मूढ़ता रोग ॥४३॥ पक्षपात को छोड़ दे करले शुद्ध विचार । तर्क-सुसंगत बात कर श्रद्धा का आधार ॥४४॥ धर्म निकष बतला चुका रख तु उसका ध्यान ।
थोड़े में हो जायगा हित-अनहित का ज्ञान ॥४५॥ अर्जुन
तर्क कल्पनारूप है उसका व्यर्थ विचार ।
दे न सकेगा वह कभी परम सत्यका मार ॥४६॥ श्रीकृष्ण--
तर्क न कोरी कल्पना वह अनुभव का सार । अनुभव विविध निचोड़ कर हुआ तर्क तैयार ॥४७॥ नियत साध्य-साधन रहे अनुभव के अनुकूल । सदा अबाधित व्याप्ति हो वही तर्क का मूल ॥४८॥ जितनी मन की कल्पना उतना भ्रम सन्दह । शुद्ध तर्क तो है सदा सत्य ज्ञान का गह ॥४॥