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चौदहवाँ अध्याय
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श्रीकृष्ण
बुद्धि हृदय दोनों मिले दोनों हों अनुकूल | सत्येश्वर-दर्शन तभी सकल सुखों का मूल ॥१९॥ श्रद्धाहीन न तर्क हो श्रद्धा हो न अतर्क । वर्तमान दोनों रहें तो हो सुखद उदर्क ॥२०॥
श्रद्धा श्रद्धा यदि पाई नहीं व्यर्थ बुद्धि का खेल । सुख-प्रसूति होती तभी जब दोनों का मेल ॥२१॥ सात्त्विक राजस तामसी श्रद्धा तीन प्रकार । निश्चय होना चाहिये सात्विक के अनुसार ॥२२॥ साविक श्रद्धा है वही जो न कभी छलरूप । बुद्धि-तर्क-अविरुद्ध जो सत्यभक्ति--फलरूप ॥२३॥ स्वार्थवासनाशून्य जो, जिसमें रहे. विवेक । जिसमें रहे न मूदता रहे सत्य की टेक ॥२४॥ राजस श्रद्धा है वही जहां स्वार्थ की चाह । गुणों की न पर्वाह है सत्य की न पर्वाह ॥२५॥ तामस श्रद्धा है वहां जहां घोर अविवेक । बुद्धि बहिष्कृत है जहां जड़ता का अतिरेक ॥२६॥ रूढ़ि करे तांडव जहां पदपद पर दिन रात । सही न जाये सत्य भी नये रूप की बात ॥२७॥ तामस श्रद्धा छोड़ दे राजस से मुँह मोड़ । सात्त्विक श्रद्धा साथ ले कर सुकार्य जीतोड़ ॥२८॥