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कृष्ण गीता मात्त्विक श्रद्धा के बिना बने न कोई काम । मंशय में डोला कर मिले न सुग्व का धाम ॥२९॥ जब तक श्रद्धा हो नहीं तबतक व्यर्थ विचार । श्रद्धा-हीन विचार का हो न सके व्यवहार ॥३०॥ वल तर्क के ग्वल सब पर श्रद्धा के अर्थ । देव शास्त्र गुरु धर्मका हो न परीक्षण व्यर्थ ॥३१॥
तर्क
अगर न श्रद्धा आ मकी हुआ परीक्षण व्यर्थ । किन्तु परीक्षण के बिना श्रद्धा एक अनर्थ ॥३२॥ वुद्धि अगर छाटी रहे तो भी हो न हताश । छोटीसी ही आँख में भर जाता आकाश ॥३३॥ मोच न कर पांडित्य यदि हो न सका है प्राप्त । गहज बुद्धि निष्पक्षता दोनों हैं पर्याप्त ॥३४॥ गान भल जाने नहीं जाँच सकें पर गान । मृग अहि आदिक जाँचते बंशी की मृदु तान ॥३५॥ पाकशास्त्र जाने नहीं करे स्वाद प्रत्यक्ष । निपट अपाचक लोग भी स्वाद-परीक्षण-दक्ष ॥३६॥ वैद्यक शास्त्र न जानता पर फल के अनुसार । धंद्य-परीक्षण में चतुर बनना है संसार ॥३७॥ हित अनहित की बात का समझ सकें सब मर्म । मरल परीक्षा धर्म की-क्या है हितकर कर्म ॥३८॥ प्रायः सब जन कर सकें सदसत् की पहिचान । भले बुरे की बात का कठिन नहीं है ज्ञान ॥३९॥