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कृष्ण-गीता पाथों का काड़ा नहीं अनुभव उसका ज्ञान । वह मानव है, है नहीं रट्ट कीर समान ॥१०२॥ उसन पाया है प्रथम मानवता का मान । वह मानव है, है नहीं--पुच्छ--हीन हैवान ॥१०३॥ विनय विवेक सुबन्धुता कर्मठता का गेह । वह मानव है, है नहीं--नर की मुर्दा देह ॥१०४॥ ऐसा सद्गुरु ढूँढले गुणगण का भंडार । जो जहाज बनकर करे भवसागर के पार ॥१०॥ रखकर गुरु का वेष जो करते नाना पाप । उनका भंडाफोड़ कर मिटे जगत का ताप ॥१०६॥ पैर पुजाने के लिये लेते जो गुरुवेष । वे पृथ्वी के भार हैं कर उनको निःशेष ॥१०७|| ज्ञान नहीं संयम नहीं और न पर उपकार । वे कुसाधु गुरु-वेष में हैं पृथ्वी के भार ॥१०८॥ धृत लोग गुरु--वेष में बने रंक से राव । व ससार समुद्र में हैं पत्थर की नाव ॥१०९॥ मम्प्रदाय कोई रहे कोई भी हो वेष । वह गुरु जिसका हो गया अन्तर्मल निःशेष ॥११०॥ गृही रहे संन्यस्त या दोनों एक समान । वह गुरु जिसका है सदा जगके हितपर ध्यान ॥१११॥ कुगुरु-जाल से बच सदा पकड़ सुगुरु का हाथ । अंतिम तत्व न भल पर तू ही तेरा नाथ ॥११२॥