________________
१३४ ]
कृष्ण-गीता धर्म यहां है अर्थ यहां है काम यहां दिखलाता । भोग यहां है, विविध योग हैं जिनका अन्त न आता । भक्तियोग है सांख्ययोग है कर्मयोग पाता हूँ । सकल यमों के विविध रूप से चकित हुआ जाता हूँ ॥१३४।। प्रेम यहाँ है व्याप्त सकल रूपों में है उसकी जय । सब विरोध हैं शान्त यहाँ पर सब में हुआ समन्वय । संशय नष्ट हुए सब मेरे अब विराट-दर्शन मे । आज्ञा पालन में तत्पर हूं अब मैं तन से मन से ॥१३५।। इस विराट प्रभु के शुभ दर्शन तुमने मुझे कराये । भूला था कर्तव्य पंथ मैं तुम सत्पथ पर लाये ॥ कितना है उपकार तुम्हारा कह कर क्या बतलाऊँ । जीवन भर उपकार तुम्हारे गाऊँ पर न अघाऊँ ॥१३६॥
[हरीगीतिका] माधव सुनाया आज तुमने जो अमर सन्देश है । वह क्लेशहर है सत्यपथ है अब न संशय लेश है ॥ उस पर चलूंगा अब सदा पीछे न पाओगे मुझे ।
कर्तव्य सब अपने करूंगा जो बताओगे मुझे ॥१३७॥ कवि
पद्मावती झुकगये पार्थ यों कहकर के मन में गीता का ध्यान किया । हँसते हँसते योगेश्वर ने अमरत्व दिया आशीष दिया । बनगये पार्थ यों अमरतुल्य था कर्मयोग पीयूष पिया । फिर निर्भय हो हुंकार किया अपने कर में गांडीव लिया ॥१३८॥