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कृष्ण-गीता देशकाल प्रतिकूल जो करें रूढ़ियाँ वास । उनको दूर न कर सके कभी अन्ध-विश्वास ॥८॥ छाई श्रद्धा इमलिये तर्क रस्त्र लूं हाथ । काट छाँट करने चलूं कर संशय का साथ ॥९॥ करूं परीक्षा बुद्धि से छान सारे धर्म । जीवन भर खोजा करूं सत्य--धर्म का मर्म ॥१०॥ लेकिन क्या हो पायगा कभी खोज का अन्त । बुद्धि तर्क मितशक्ति है जगमें खोज अनन्त ॥११॥ जीवन भर खोजा करूं पा न सकू विश्राम । करने बडूं कब सग्वे मैं जीवन के काम ॥१२॥ छोटी सी यह बुद्धि है है सब शास्त्र अथाह । अगर थाह लेने चलूं हो जाऊँ गुमराह ॥१३॥ ऋषि मुनि तीर्थ कर कहां कहां मन्दमति पार्थ । करूं परीक्षण किस तरह व्यर्थ यहां पुरुषार्थ ॥१४॥ सैन्धव--कण लेने चले यदि समुद्र की थाह । घुले विचारा बीच मे पा न मके अवगह ॥१५॥ बिना परीक्षण के अगर मिल न सके सद्धर्म । मन्दबुद्धि संसार यह कैसे करे मुकर्म ॥१६॥ श्रद्धा से गति है नहीं तर्क से न विश्राम । करुणा कर बोलो सखे कर्म कौनसा काम ॥१७॥ मन कहता कुछ बात है बुद्धि दूसरी बात । करूं समन्वय किस तरह हो न परस्पर घात ॥१८॥