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कृष्ण-गीता द्वत और अद्वत म हृदय रहा है झूल ।। बतलादो मुझको सख, कौन यहां अनुकूल ॥१५॥ ब्रह्म एक ही सत्य है कहते ऋषि मुनि आर्य । मायामय संसार यह करूं वृथा क्यों कार्य ॥९६॥ सुलझ सुलझकर उलझती ज्ञात बनी अज्ञात ।
डाल डाल से जारही पातपात पर बात ॥९॥ श्रीकृष्ण-~
तूने दर्शन-शास्त्र का पिंड न छोड़ा पार्थ । इसीलिये भ्रम में पड़ा भूल गया परमार्थ ॥९८॥ 'जगत मूल में एक है अथवा हैं दो तत्त्व' धर्म मिलेगा क्या यहां क्या है इसमें सत्त्व ॥९.९॥ मिट्टी के हैं दस घड़े उनकी दशा न एक । अगर एक मिट जाय तो फिर भी बचें अनेक ॥१००il दुग्ध रक्त पर है लगी एक तत्व की छाप । रक्तपान में पाप पर दुग्धपान निष्पाप ॥१०१॥ उपादान यदि एक है जुदे जुदे हैं कार्य । तो सुखदुख या नाशका ऐक्य नहीं अनिवार्य ।१०२ एक ब्रह्म ही बन रहा वध्य-वधक का मूल । तो भी हिंसकता नहीं जीवन के अनुकूल ॥१०३॥ है सुख दुख के मूल में एक चेतना तत्त्व । तो भी सुखको छोड़कर दुःख न चाहें सत्त्व ॥१०४॥ एक तत्त्व की बात है जीवन में निःसार । धर्मशास्त्र में व्यर्थ यह द्वैताद्वैत विचार ॥१०५॥