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कृष्ण-गीता कर्म-भेदसे जाति-भेद है वह कुछ अमिट नहीं है । बाज़ारू बातों सिवाय फिर, रहता नहीं कहीं है | देश जाति वंशादि भेद से नहीं जाति का नाता । पक्षपात मदमोह आदि से मनुज तुच्छ बनजाता ॥५६॥
जाति-मोह से न्याय और अन्याय भूल जाता है । कार्य-क्षेत्र में तब पद पद पर पक्षपात आता है । प्रेम, न्याय का पक्ष छोड़ कर अंधा बन जाता है । द्वपी और उपेक्षक बनकर ताण्डव दिखलाता है ॥५७॥
वीर छन्द इसीलिये स्थितिप्रज्ञ जाति का मोह सदा रखता है दूर । सर्व-जाति-समभाव दिखाता, भेद-भाव कर चकनाचूर ॥ रहता है निष्पक्ष न्यायरत विश्व-प्रेम का पूर्णागार । बनता है निर्लिप्त और कर्तव्यशील वह परम उदार ॥५८॥
बन जा तू स्थितिप्रज्ञ जगत की झूठी माया से मुँह मोड़ । मानव मानव एक जाति हैं जातिपाँति के झगड़े छोड़ ॥ जो न्यायी है वहीं कुटुम्बी उससे ही तू नाता जोड़ । करले अब कर्तव्य कर्म तू कुल कुटुम्ब का बन्धन तोड़ ॥५९।।
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