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कृष्ण-गीता
मन यदि का में हो गया तो घर में भी योग । मन यदि नचना ही रहा तो वनमें भी भोग ॥४८|| नारी उसे न कामिनी जिस का हृदय पवित्र । जीवन नौका के लिये है सहयोगी मित्र ॥४९|| वहां विषमता है जहां प्रति--क्रिया है पार्थ । योगी के समरूप हैं चारों ही पुरुषार्थ । ५०॥ भोग योग को समझ तू करले भीतर दृष्टि । छलनामय करदी यहां मानव ने सब सृष्टि ॥५१॥ चोरों की तो क्या कथा साहुकार भी चोर । 'मुंह में राम छुरी बगल' छलना चारों ओर ॥५२॥ क्या हिंसा करुणा यहां क्या सदसद्यवहार । क्या चोरी ईमान क्या शील और व्यभिचार ॥५३॥ कौन परिग्रह में फँसा कौन यहां निग्रंथ । अन्तर्दृष्टि बिना यहां उलझे सारे पंथ ॥५४॥ सब कुछ है सापेक्ष पर रख विवेक का साथ । संशय सब उड़ जायगा निश्चय तेरे हाथ ॥५५||
हरिगीतिका कर्तव्य निर्णय में विवेकी बन कुपंशय छोड़ दे । बाहर तथा भीतर निरख छलजाल सारा तोड़ दे ॥ कर्तव्य-पथ आगे पड़ा, बढ़, मोह का मुँह मोड़ दे । जो भर रहा चिरकाल से वह पाप का घट फोड़ दे॥५६॥
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