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कृष्ण-गीता अर्जुन
कैसे मुलझंगा सखे सुख-दुख का जंजाल । जीवन है जो एक का वही अन्य का काल ॥५९।। चोरी करते चोर हैं उन्हें न दूं यदि दंड । तो पीड़ित हो जाय जग फैले पाप प्रचंड ॥६०il यदि चोरों को दंड दूं तो हो उनको कष्ट । सुखवर्धन कैसे हुआ धर्म हुआ तब नष्ट ॥६१॥ चोर जगत का अंग है हो यदि उसको कष्ट । तो जग सुखमय क्या हुआ यत्न हुए सब नष्ट ॥६२॥ सुख होता इस ओर जब दुःख दूसरी ओर ।
तब निर्णय कैसे बने, है .कर्तव्य कठोर ॥६३॥ श्रीकृष्ण---
जो दुख से सुख दे अधिक वही समझ सत्कार्य । इसके निर्णय के लिये है विवेक अनिवार्य ॥६४॥ दुख-सुख-निर्णय की तुला आत्मौपम्य विचार । पर को समझा आत्मसम मिला ज्ञान का सार ॥६५।। चोरी करता चोर पर चोरी सहे न चोर । चोरों के घर चोर हों चोर मचावें शोर ॥६६॥ पापी करते पाप हैं मगर न चाहें पाप । पापी पर यदि पाप हो तो उसको भी ताप ॥६॥ अपने को जो है बुरा पर को भी वह जान । थोड़े शब्दों में कहीं पुण्य-पाप-पहचान ॥६८||