________________
तेरहवाँ अध्याय
फिर भी शंका हो रही चित्त हुआ है खिन्न | सब के दर्शन भिन्न क्यों तत्त्व विवेचन भिन्न ||६|| धर्म धर्म जब एक हैं दर्शन में क्यों टेक | मंत्र-सिद्धि में हो रहा विकट विघ्न यह एक ||७|| गीत २७
धर्म-शास्त्र का मर्म समझले भाई । दर्शन-शास्त्रों को देदे तनिक विदाई ||
।
तुझको अपना कर्तव्य कर्म करना है अपनी परकी जग की विपत्ति हरना है । पुरुषार्थ दिखाकर दुःख - सिन्धु तरना है । विपदाओं में भी अटल धैर्य धरना है || यह कर्म सिखाता धर्म परम सुखदाई | तू धर्मशास्त्र का मर्म समझले भाई ॥ ८॥
ईश्वर है कोई या कि वचन का छल है । वह कर्ता है या नहीं अचल या चल है । क्यों करता यह अफसोस बना निर्बल है । तृ समझ मर्म की बात 'कर्मका फल है ' ॥ जिस तरह बने तू मान 'कर्म फलदाई' ।
,
भाई ||९||
श्रीकृष्ण
[ १०५
धर्म-शास्त्र का मर्म समझले जग मूल रूप में एक विविधता माया । या प्रकृति पुरुष ने मिलकर खेल बनाया । या पंचभूत ने नाटक है दिखलाया । इन बातों में क्या धर्म-तत्र है गाया ॥