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कृष्ण-गीता
होती रावण की विजय तो घर-घर व्यभिचार । करता ताण्डव रात दिन मिट जाते घरबार ॥७९॥ परिमित रावण-दल मरा हुआ पाप का अन्त । अगणित सीताएँ बचीं फूला पुण्य--वसन्त ॥८॥ कौरव-दल यद्यपि बहुत पर उसकी जो नीति । वह यदि जीते जगत में फैले घर घर भीति ॥८१॥ कौरव से लाखों गुणा जनता को हो कष्ट । घर घर हाहाकार हो विश्व-शान्ति हो नष्ट ॥८२॥ कितनी द्रौपदियाँ पिसें खिंचे हजारों चीर । भाई को भाई न दे चुल्लूभर भी नीर ॥८३।। स्वार्थी नीच असभ्य--जन भर डालें संसार । घर घर में बैठे यहां पशुता पैर पसार ॥८४॥ पाण्डव की या राम की जय से जगदुद्धार । रक्षण हो संसार का पापों का संहार ॥८५॥ बचे सभ्यता का सदन साफ़ रहे घर द्वार । पापों का कचरा हटे स्वच्छ बने संसार ॥८६॥ रामविजय से हो सका अधिकों का कल्याण । सीताजी के त्राण में था नारीका त्राण ॥८॥ सीताजी के त्राण से बचा अर्ध-संसार । रावण के संहार से हुआ पाप-संहार ॥८८॥ दम्पति-धर्म रहा वहां रहा अकंटक प्यार । सब नाते फ्ले फले हुए मंगलाचार ॥८९॥