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ग्यारहवाँ
है एक एक से आत्मा की न भलाई । पुरुषार्थ सभी तेरे हाथों में भाई ॥३१॥
कोई धर्मी बन जीवन बोझ बनाता । कोई है अर्थ-पिशाच लूटता खाता । कोई कामुकता में ही जन्म गमाता ।
पर इनमें कोई सुखका पता न पाता ॥ दुख बनता पर्वततुल्य और सुख राई । पुरुपार्थ सभी तरे हाथों में भाई ॥३२॥
कोई पुरुषार्थो का न रूप भी जाने । कोई जाने तो तत्त्व नहीं पहिचाने । कोई पहिचाने किन्तु न मनमें ठाने ।
कोई ठाने तो फिरें बने दीवाने । आलस्य और उन्माद दिया दिखलाई । पुरुषार्थ सभी तरे हाथों में भाई ॥३३॥
यदि मोक्ष--तत्त्व का रूप न निर्मल दग्वा । धर्मार्थ काम का मिलित नहीं दल देवा । नकली पुरुषार्थो का न अगर छल देखा । सारे भेदों का यदि न फलाफल देखा । तो फिर क्या देखा करली कौन कमाई ।
पुरुषार्थ सभी तेरे हाथों में भाई ॥३४॥ अर्जुनमाधव मोक्ष यहीं मिला पूर्ण हुए सब काम । काम अर्थ फिर किसलिये छो. इनका नाम ॥३५॥