________________
बारहवाँ अध्याय
[ ९५
विद्यायज्ञ दग्ध जहां हो मूढ़ता वह है विद्या यज्ञ । ज्ञान कुंड में होम हो रहे न कोई अज्ञ ॥२६॥
औषधयज्ञ उचित चिकित्सा से किया रोगो का अवसान । सामूहिक उपकार यह ओषध यज्ञ महान ॥२७॥
प्राण-यज्ञ जनता के हित के लिये करना जीवन दान । प्राणयज्ञ यह विश्व का करता है उत्थान ॥२८॥
कीर्तियज्ञ नाम रह या जाय पर हो ममाज-उद्धार । कीर्तियज्ञ यह विश्व में अनुपम व्यागागार ॥२०॥
ब्रह्मयज्ञ जग हित रूपी ब्रह्म में किया व्यक्ति--हित लीन । यज्ञ-शिरोमणि है यही ब्रह्मयज्ञ स्वाधीन ॥३०॥ अगणित इनके भेद हैं अगणित इनके रूप । यदि न यज्ञ हो विश्व में तो घर घर दुखकूप ॥३१॥ अगर न हम पर के लिये करें स्वार्थ-बलिदान । मिट जाये सब जगत का पल में नाम-निशान ॥३२॥ यज्ञ परम आधार है यज्ञ परम कल्याण । यज्ञ न हो संसार में तो न किसी का त्राण ॥३३॥