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कृष्ण गीता
सब धर्मो में हो रहा भक्ति--योग का गान । भक्ति - विरोध वहीं हुआ जहां रहा अज्ञान ॥ ९९ ॥ कोरा भक्त अगर बना स्वकर्तव्य को भूल । भक्ति निकम्मी हो गई ढोंग - रूप सुख - शूल ॥१००॥ सत्पथ पर हम दृढ़ रहें इसीलिये है भक्ति | भावना - शक्ति ॥ १०१ ॥
वह मन का आधार है और
ज्ञान कर्म भी हैं वहां जहां
भक्ति निर्दोष ।
पूर्ण संतोष ॥ १०२ ॥
तीनों सहयोगी बनें तभी होते सम्यग्ज्ञान के भक्ति कर्म भी साथ | प्रेम और कृति के बिना क्या आ सकता हाथ ॥ १०३ ॥
ऋषि मुनि ज्ञानी तीर्थकृत् अर्हत जिन अवतार । सत्य- भक्ति रखकर किया सबने कर्म अपार ॥ १०४॥
ज्ञानी बन बनबैठते अगर कर्म से हीन । देते कैसे जगत को सत्सन्देश नवीन ॥ १०५ ॥
त्याग
जहां त्याग है है वहां भक्ति ज्ञान सत्कर्म । अविवेकी का त्याग क्या ज्ञान-हीन क्या धर्म ॥ १०६॥
छूट गया यदि मोह तो छूट गया दु:स्वार्थ । मगर छूटना चाहिये क्यों जनहित परमार्थ ॥ १०७॥
वनवासी अथवा गही अम्बर--धर या नग्न | कैसा भी हो रह मगर सेवा में संलग्न || १०८॥