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कृष्ण गीता काम न अतिसंभोग है काम नहीं व्यभिचार । सच्चा काम जहां रहे वहां न पापाचार ॥५६॥ परनिमित्त लेकर जहां इन्द्रिय--मन--संतोप । स्वपर-विरोधी हो नहीं वहीं काम निर्दोष ॥५७।। छीन लिये यदि जगत के स्वयं--सिद्ध अधिकार । इंद्रिय--मन--संतोप वह होग पापाचार ॥५८॥ अद्भुत यह संसार है यहां परस्पर भोग । जीवन यह कैसे टिके हा न अगर सहयोग ।।५९।। जहां परस्पर योग है वहां परस्पर भोग । जहां परस्पर भोग है वहां काम का योग ॥६०॥ वह सारा सुख काम है जो 'पर' से मिल जाय । 'पर' अपने से यों मिले हृत्तंत्री हिलजाय ॥६१॥ काम न कोई पाप है उसकी अति है पाप । काम-हीनता प्राण पर है जड़ता की छाप ॥६२॥ सकल कलाएँ जगत की सारे हास्य तरंग । अंगअंग श्रृङ्गार तक सकल काम के अंग ६३ क्रीड़ाएँ नानातरह नानातरह विनोद । सभी काम के रूप है जितने हैं मन-मोद ॥६४॥ भक्ति प्रेम आदर लिये फैले घर घर नाम । इस का भी आनन्द है एक मानसिक काम ॥६५॥ तीन भेद हैं काम के सत्त्व-रजस्तम-रूप । सत्व भला, मध्यम रजस तम पापो का कूप ॥६६॥