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श्रीकृष्ण
ग्यारहवाँ अध्याय
[ ८१
अर्जुन, मैं कह चुका जगतका परम ध्येय सुख पाना | पर को दुखित न होने देना आप सुखी बन जाना ॥ मुख मनकी अनुकूल वेदना प्राणिमात्र को प्यारी । दुख मनकी प्रतिकूल वेदना जीवन की अँधियारी ||५|| दुख सुख बाहर की न वस्तु है, है वह मनकी माया । माया का रहस्य पहचाना सुख दुख वश में आया | सुखके साधन रहें जीव फिर भी न मुखी हो पाता । तुल-तल्प पर पड़ा पड़ा भी जगकर रात बिताता ||६|| नहीं भूल पर बाह्य जगत को सुख साधन न भुला तू । और अनावश्यक कष्टों को इच्छा से न बुला तू ॥ जग पर अत्याचार न करके सुख के साधन पाले । जहां नपा सकता सुख-साधन वहां मोक्ष अपनाले ॥७॥
दोहा
काम मोक्ष पुरुषार्थ हैं सारे सुख के मूल । दोनों के संयोग से फूलें सुख के फूल ||८|| पुरुषार्थो में मुख्य ये सब के अंतिम ध्येय | अप्रमेय संसार में ये हैं परम प्रमेय ॥ ९ ॥
काम मोक्ष सुख-मूल हैं, धर्म मोक्ष का मूल । अर्थ काम का मूल है चारों हैं अनुकूल ॥ १० ॥ इन्द्रिय-सुख है काम-सुख भोग और उपभोग | परम अतीन्द्रिय मोक्ष मुख पूर्ण शुद्ध मन- योग ॥ ११ ॥