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दसवाँ अध्याय
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यदि अणुभर सुख पा गया पर दुख मेरु समान । तो सुख-वर्धन क्या हुआ लाभ बना नुकसान ॥३३॥ मुझको अणुभर सुख मिला जगको मनभर कष्ट । तो सुखवर्धन क्या हुआ शान्ति हुई सब नष्ट ॥३४॥ हिंसा चोरी झूठ हो अथवा हो व्यभिचार । मुख से दुख अगणित-गुणा देता पापाचार ॥३५॥ इस सामूहिक दृष्टि से देख पाप के कार्य । है सुख-वर्धन के लिये पाप--त्याग अनिवार्य ॥३६॥ अपने में ही भूल मत रख सब जग पर दृष्टि ।
फिर यदि सुख-वर्धन हुआ हुई धर्म की सृष्टि ॥३७॥ अर्जुन
माधव जब सुख ध्येय तब पर का कौन विचार । आप भला तो जग भला भले मरे संसार ॥३८॥ पर-हित पर क्यों दृष्टि हो अपने हित को भूल |
वही देखना चाहिये जो अपने अनुकूल ॥३९॥ श्रीकृष्ण- गीत २२
जगत-हित में अपना कल्याण । यदि तू करता त्राण न जग का तरा कैसा त्राण ।
जगत-हित में अपना कल्याण ॥४०॥ 'पर' तुझको पर है पर तू भी 'पर' को है पररूप । सब 'पर' यदि भूलें पर को तो डूबें सब दुखकूप ॥