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दसवाँ अध्याय
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सुख की आशा में चले टेढ़ी टेढ़ी गैल | पराधीन घूमा करे ज्यों कोल्हू का बैल |॥१४॥ घर कुटुम्ब को छोड़कर चल जंगल की राह । त्यागी बनना है जगत है बस सुग्व की चाह ॥१५।। इसीलिये धन धर्म हैं इसीलिये हे स्वर्ग । इमीलिय ही काम है इसीलिये अपवर्ग ॥१६॥ है सुग्ख पानेके लिय देवों का गुणगान । इसीलिये जप तप बना इसीलिये भगवान ॥१७॥ आते हैं सुखके लिये तीर्थकर अवतार । दुनिया का उद्धार कर करत निज उद्धार ॥१८॥ जग सुखपावे या नहीं किन्तु वहीं है ध्येय । अप्रमेय संसार में मुग्व-पथ परम प्रमय ॥१९॥ सुख-पथ का प्रत्यक्ष कर कहलात सर्वज्ञ । सुख-पथ यदि जाना नहीं तो पंडित भी अज्ञ ॥२०॥ कहने का यह सार है सुख जीवन का सार । तार तार में रम रही सुख की चाह अपार ॥२१॥ जिससे जगको सुख मिले वही कहा है धर्म । जो सुखकर दुखहर तथा वही धर्म का मर्म ॥२२॥ परम निकष कर्तव्य की सुख-वर्धन है एक । सुखवर्धन कर विश्व का रखकर पूर्ण विवेक ॥२३॥