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संशय यद्यपि मर गया
तो भी हो पाया नहीं
नमझी है सापेक्षता
सत्य अहिंसा ब्रह्म
कृष्ण- गीता
दोहा
श्रीकृष्ण
-
श्रद्धा हुई
जिज्ञासा
समझा है समझा है
हैं हैं ये
का
अनन्त |
अन्त ॥४॥
एक दूसरे में जहां हो कंस निर्णय वहां परम
उनके निर्णय के लिये तुमने कहा विवेक । पर विवेक कैसे करूं हो न कहीं अतिरेक || ६ || दीखे मुझे विरोध । सत्य की शोध ॥७॥ बने विवेकाधार ।
कहो निकप वह कौन है जिसको पाकर मैं
करूं
संशय- सागर - पार ||८||
आचार |
जगदाधार ||५||
होते जितने कार्य है वे सब सुख के अर्थ | जिसमे मिल सकता न मुख, कहलाता वह व्यर्थ ||१९|| करता है संसार यह निशिदिन सुख की खोज । होता है सुखके मिले विकसित बदन सरोज ॥ १०॥ धन विद्या सौन्दर्य बल नाम और अधिकार | कुल कुटुम्ब सुख के लिये ढूंढ़ रहा संसार ॥ ११ ॥ चन नहीं है चैन बिन ज्यों ही हुआ प्रभात । त्यों ही भौंरा सा भ्रमें जब तक हुई न रात ॥ १२ ॥ जग चाहे सुखके लिये मज़ा और उसी आराम को जग का बने
मौज़ आराम | गुलाम ॥१३॥