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कृष्ण - गीता
धन--संग्रह कर मत कभी कर प्रदान या भोग । किन्तु भोग सीमित रहें बसे न तन में रोग ॥२६॥ सेवा देकर कर सदा सेवा का आदान | धन लेकर संग्रह किया बनी पापकी खान ||२७|| अथवा बदला छोड़कर ले
अक्षय भंडार |
यश अनंत मिल जायगा होगा पुण्य अपार ॥ २८॥ धन वितरण के ध्येय में संग्रह है परिहार्य | फिर भी जो संग्रह किया तो असत्य अनिवार्य ॥२९॥ जितना ही संग्रह हुआ उतनी पर की हानि । कहा परिग्रह इसलिये हिंसामय दुख -- खानि ॥३०॥ एक तरह का चौर्य है नरनारी-व्यभिचार । हिंसा और असत्यमय है वह
अगणित
फैले हैं संसार में हिंसा और असत्य ही हैं सब के
पापाचार ॥३१॥
पापाचार |
आधार ||३२||
सबके निर्णय के लिये सच्चा शास्त्र विवेक । मध्यम पथ पर चल सदा हो न कहीं अतिरेक ॥३३॥ केवल बाह्याचार में, है न पुण्य या पाप । पुण्य पाप मनमें बसा दिखता अपने वैभव में भी योग है यदि न नीरज नीरज नीर में करें नीर का लाखोंकी सम्पत्ति हो फिर
आप ||३४||
तन तो मन्दिर में रहे मन
अन्ध- अनुराग । त्याग ||३५||
भी रहे न मोह | मन्दर की खोह ||३६||