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आठवा अध्याय
जग पर अत्याचार हो उनको करने नष्ट । हो अतथ्य व्यवहार वह है न सत्य से भ्रष्ट ॥५३॥
विनोदी अतथ्य वंचकता मन में न हो और न ईप्पीभाव । प्रेम भक्ति वात्सल्य हो हो न स्वार्थ का दाव ॥५४॥ प्रेम प्रकट हो और हो, प्राप्त सभी को माद । ना अतथ्य भी सत्य है जहां विशुद्ध विनोद ॥५५॥
[ललित पद ] सत्यासत्य अतथ्य-तथ्यका भेद समझ ले भाई । पूर्ण मत्य अज्ञय, ज्ञेय में विविध अपेक्षा आई । जहां अहिंसा वहीं सत्य भी आना मदन बनाता । जहां सत्य प्रभु हो विराजता वही अहिंमा माता ॥५६॥ जहां न्याय की रक्षा होती वहीं मन्य आता है। जहां मन्य है वहीं अहिंमा को मनुष्य पाता है । ये दोनो ही धर्म-मार है है घट घट के वासी । उन्हें समझ, कर्तव्य-पंथमें बढ़ चल छोड़ उदासी ॥५॥
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