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कृष्ण-गीता यद्यपि अहिंसा-रूपिणी है पर नितान्त अशक्तिका । इससे न मिल सकता कभी परिचय अहिंसा-भक्तिका ॥३६॥
निरपेक्षिणी-अहिंसा सम्पर्क में आते नहीं संसारके प्राणी सभी । रहती उपेक्षा हो इसीसे हो नहीं हिंसा कभी ॥ समझो निरर्थक है अहिंसा है न संयमरूपिणी । है प्रेम की सद्भावना से शून्य वह निरपेक्षिणी ॥३७॥
कापटिकी-अहिंसा होती अहिंसा घोर हिंसा--रूप कापटिकी यहां । बाहर अहिंसा है मगर भीतर भरी हिंसा जहां ॥ 'मर जाय' इस दुर्भाव से होता जहां रक्षण नहीं । बनते बहान सकड़ों छलपूर्ण कापटिकी वहीं ॥३८॥
स्वार्थजा--अहिंसा यह स्वार्थजा भी है अहिंसा स्वार्थ जिसका मूल है । पर-प्राण-रक्षण भी जहां पर स्वार्थ के अनुकूल है ।। जग पालतू पशु आदि की करता इसीसे है दया । कैसे चलेगा काम यदि धनरूप यह पशु मर गया ॥३९॥
मोहजा--अहिंसा होती अहिंसा मोहजा भी जो कि है स्वाभाविकी । घरघर भरी रहती यही जिस पर सभी दुनिया बिकी। है मनजकी तो बात क्या पशुपक्षियों में भी रही । सन्तान-वत्सलता इसी की मति है अनुपम कही ॥४०॥