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कृष्ण-गीता
इनको सत्य समझ कर मानव बनता स्वार्थी कामी । पापोत्तेजक तथ्य इसीसे है असत्य-अनुगामी ॥२८॥
निंदक तथ्य बात ठीक है किन्तु हमारा आशय हो पर-निंदा । अपनी शेखी मार दूसरों को करना शरमिंदा । गाली आदि कटुक वचनों के भीतर प्रेम न होवे । हो न सुधार भावना सच्ची, समता सीमा खोवे ॥२९॥ अविवेकी अति क्रोधी मानी स्वार्थी बनकर बकना । वाणी की संयमता खोकर नाना तरह थिरकना ।। कितना भी हो तथ्य किन्तु वह है जगको दुखकारी। निंदक तथ्य इससे कहलाता असत्य-सहचारी ॥३०॥ हो वैज्ञानिक खोज या कि संशोधन बात अलग है। प्रिय अप्रिय हो शुद्ध ज्ञान से बढ़ता सारा जग है । आज नहीं तो कल सुतथ्यका फल अच्छा दिखलाता। इसीलिये विज्ञान तथ्य के पथ में बढ़ता जाता ॥३१॥ वैज्ञानिक-विचारणाएँ जो तथ्य हमें बतलावें । उससे सत्य-पंथ निर्मित कर उस पर जगत चलावें । पर नय पथ में तथ्य नाम से वस्तु न बाधा डाले । तथ्य सत्य का अनुचर होकर जगका श्रेय सँभाले ॥३२॥
अतथ्य के छः मेद-(दोहा) है अतथ्य षड्विध कहा अन्तिम चारों सत्य । दोनों प्रथम असत्य हैं है जिन में दौर्गत्य ॥३३॥