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सातवाँ अध्याय [५१ निर्दोष पशुके रक्तकी नदियाँ बहाना किसलिये ।। जब अन्न ईश्वरने दिया तब मांस खाना किसलिये ॥३१॥ संकल्पजा हिंसा किसी को भी न करना चाहिये। 'सत्वेषु मैत्री' का हृदयमें भाव धरना चाहिये । अनिवार्य हिंसा हो कभी तो न्यून से भी न्यून हो । यह पाप का भी पाप है नाहक किसीका खून हो ॥३२॥ है पंचविध हिंसा मगर संकल्पजा ही त्याज्य है । संकल्पना हिंसा जगत में पापका साम्राज्य है । अवशिष्ट हिंसाएँ अहिंसा--तुल्य या क्षतव्य है । यों बाह्य हिंसा के विषय में ये विविध मन्तव्य हैं ॥३३॥ हिंसा कही है पंचविध षड्विध अहिंसा की कथा । होती अहिंसा भी कभी हिंसा-जनक, देती व्यथा । हिंसा अहिंमा है नहीं निर्णीत बाह्याचार से । निर्णीत होगी भावना फल आदि नाना द्वार से ॥३४॥
बंधुत्वजा अहिंसा बन्धुत्वजा पहिली अहिंसा प्रेम की जो मूर्ति है । निःस्वार्थ है पर प्राणियों के स्वार्थ की परिपूर्ति है । जिससे हृदय की वृत्ति हो बन्धुत्वमय करुणावती । है विश्व-प्रेममयी वही सच्ची अहिंसा भगवती ॥३५॥
___ अशक्तिका-अहिंसा हिंसा हृदय में है भरी पर शक्ति करने की नहीं । दिल जल रहा पर योग्यता है जलन हरनेकी नहीं ॥