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कृष्ण-गीता कामलांग नर बन बने अतिमायाचारी । भीरु सतत लज्जालु परमुखाकांक्षाधारी ॥२६॥ अर्थमत्र आजाय अगर नारीके करमें । उसका शासन चले नगर--भरमें घर-घरमें ॥ पुरुषों के गुण-दोप नारियों में आजावें । नारीके गुण दीप नरों में स्थान जमावें ॥२॥ नरनारीके दोष और गुण अमिट नहीं जब : है नरत्व का पक्षपात उन्माद व्यर्थ नव ।। दाना में समभाव समादर सदा चाहिये । दोनों समबल बन जगत् कल्याण के लिये ॥२८॥ पार्यभेद भी रहे हानि की बात नहीं है । सबकी मुविधा जहां न्यायकी बात वहीं है । जिसमें जो हो योग्य वहां वह हा अधिकारी । पर इसका यह अर्थ नहीं, हो अयाचारी ॥२९॥ अपना अपना काम सँभालें मिले रहे पर । जुदे रहे वादित्र मगर हो मिला हुआ स्वर ॥ नीच ऊँच का भेदभाव धरना न चाहिये । समझौते का दुरुपयोग करना न चाहिये ॥३०॥ 'नारी तो है भोग्य' नहीं यह समझो मनमें । और न गणना करो कभी नारी की धनमें ॥ नारी नर के तुल्य भोज्य या भोजक दोनों । विश्वरंग के हैं समर्थ ये योजक दोनों ॥३१॥