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कृष्ण-गीता
नारीका है भीरु हृदय, है कोमल काया । है विलासिनी और सदा करती हैं माया ॥४॥ हो दोनों मे प्रेम, किन्तु हो ममता कैसे । समता यदि आ जाय रह फिर ममता कैसे ।। अधिकारों का द्वंद क्यों न तब हो घर घरमें ।
हा दुर्लभ तब शान्ति हमारे जीवन-भरमें ।।५।। श्रीकृष्ण--अर्जुन तुझस पक्षपात हो रहा यहां है ।
पक्षपात है जहां वहां पर न्याय कहां है । सब में है गुण दोप रहे नर अथवा नारी । किसी एक में है न गुणों का पलड़ा भारी ॥६॥ नारी भी धीमती और है पौरुपवाली । कर सकती है तभी कुटुम्बों की रखवाली । कर्मठता की मूर्ति नहीं होती यदि नारी । कैसे जीता पुरुष प्राण भी होते भारी ॥७॥ यदि नारी का हृदय न होता दृढ़ता का घर । रहता कैसे कुल कुटुम्ब का पता यहां पर । अंधड़के पत्ते समान उड़ते रहते सब । दृढ़ नारीके बिना कौन होता किसका कब ॥८॥ कोमल तन है किन्तु सहनशीला असीम है । कहलाती है भीरु अभय लीला असीम है । है विलासिनी किन्तु त्यागकी मूर्ति न कम है। है एकांगी दृष्टि इसीसे तुझको भ्रम है ॥९॥