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पाँचवाँ अध्याय वैवाहिक व्यवहार आदि में सब विचार आते थे । किन्तु जातिमद के विचार मुग्व भी न दिग्वा पति थे ॥५०॥
जाति-भेद तब मार-युक्त था अब निस्मार हुआ है। आया जब से दुभिमान तबसे यह भार हुआ है ॥ फैल गया है द्वेप आज दुर्लभतम प्यार हुआ है ।
दृमीलिये यह स्वग तुल्य जग, नरकागार हुआ है ॥५१॥ बदला कोमल हृदय इमांस अब यह गल हुआ है । अब न शांति छाया मिलता है, इसमे धूल हुआ है। लक्ष्य भ्रष्ट हो गया इससे अब गतमल हुआ है । बदल गया संसार इसीसे, अब प्रतिकूल हुआ है ॥५२॥
मूलरूप में रहें जातियाँ, कोई हानि नहीं है । किन्तु नष्ट हो जाय विकृति मब, फैली जहाँ कहीं है ॥ कार्य-विभाग अवश्य रह पर वह न अमिट हो पाव ।
निज निजके अनुरूप सभीका, कार्यभेद बन जावे ॥५३॥ जाति भले मिटजाय, विषमता मे न जगत है खाली । सदा रहेगी वह जगमें, सहयोग बढ़ानेवाली ॥ रुचि आदिक का भेद रहे, वह है न कभी दुग्वदाई । दुग्वदाई है जाति-भेद से बिछुड़े भाई भाई ॥५४॥
भेद रहेगा और जम्मरत होगी मबको मवकी । इन भेदों से मगर जाति की, नातेदारी कब की ? भेद रहे वैपम्य रहे वह, जो सहयोग बढ़ावे । पर यह मानव-जाति न चिथड़े चिथड़े होने पावे ॥१५॥