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चौथा अध्याय
संसार जिसको उच्च अथवा नीच शब्दों से कहे । उसके लिये जिसके हृदय में साम्य ही जागृत रहे । मद हे न जिसको जाति का या वर्ण का परिवार का । गौरव सदा जिसके हृदय मे है जगत के प्यार का ॥ ४ ॥
पुरुषत्व का अभिमान भी जिसको कभी आता नहीं । नर नारियों में जो विषमता-भाव है लाता नहीं । हैं देवियाँ सी नारियाँ जिमके लिये संसार में ।
स्वाधीन करता है उन्हें रखता न कारागार में ॥ ५ ॥ जो सर्वधर्मसमानता के तत्व में अनुरक्त है । मिलता जहाँ पर सत्य है बनता वहीं पर भक्त है ।। करता सदा गुण का ग्रहण दुर्गुण हटाता है सदा । सोर महात्मा-वृन्द में रखता विनय है सर्वदा ॥ ६ ॥
मत-मोह है जिस में नहीं बस सत्य में अनुराग है । पक्षान्धता की वासना का सर्वदा ही त्याग है ॥ जो है पुजारी सत्यका निष्पक्षता से युक्त है ।
पूरा विवेकी और ज्ञानी अन्धश्रद्धा -मुक्त है ॥ ७ ॥ हो रूढ़ि नतन या पुरानी पर गुलामी है नहीं । प्राचीनता का मोह सदसबुद्धि-स्वामी हैं नहीं ॥ कर्तव्य-निर्णयकी कसोटी विश्वका कल्याण है । होती सुधारकता जहाँ होता वहीं पर त्राण है ॥ ८ ॥
जो इन्द्रियों की वश्यता या दासता से दूर है । समभाव और सहिष्णुता जिसमें सदा भरपूर है ॥