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कृष्ण-गीता
यदि सभी हों एक, क्या होगा भला ?
रह न पायेगी कला घुट कर गला ॥१५॥ एक सज्जन एक दुर्जन कर हो । एक कायर एक दिखता शूर हो ॥
विविधता जब इस तरह भरपूर हो ।
क्यों न तब वह प्रकृति की मंजूर हो ॥१६॥ जातियों की है विविधता व्यर्थ क्या ? जातिके ममभाव का है अर्थ क्या ।
दूर कर संदेह ममझाओ मुझे ।
मत्यके पथपर मख लाओ मुझ ॥१७|| श्रीकृष्ण-- गीत १४
भोले भाई त भल रहा कुछ जाति भेद का ज्ञान नहीं । वैषम्य माम्य है योग्य कहाँ इसकी तुझको पहिचान नहीं ।। यदि हो समता का नाम नहीं जग में केवल वैषम्य रहे । नो पलभर में हो जाय प्रलय जगका हो नाम निशान नहीं ॥ यदि हो सत्ता का साम्य नहीं मारे जग में मुझ में तुझ में, नो शून्य रूप हो जगत रहे सत्ता का अणुभर भान नहीं ॥ यदि चेतन की समता न रह खगम, मृगमे, मुझमें तुझमें । जड़ता अखंड होगी ऐसी होगा जिस का अवसान नहीं ॥ मानवता भी यदि जाति न हो मानवकी क्या पहिचान रहे । फिर पशुता का आक्रन्दन हो मानवता की मुसकान नहीं ॥ वैषम्य, साम्यकी माया है यह साम्य ब्रह्म है व्याप्त यहां ।