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कृष्ण-गीता
हरिगीतिका वनवास था पूरा हु आ अब सन्धि का सन्देश था । धृतराष्ट्र के दौर में वह सुलहनामा पेश था ।
श्राकृष्ण से थे दूत जिनने यत्न कुछ छोड़ा न था ।
पर हाय भारतवर्ष का दुर्भाग्य कुछ थोड़ा न था ॥ ४ ॥ दुर्धर्ष दुर्योधन न माना हट पकड़कर रह गया । सौजन्य सारा छोड़कर उद्गार अपने कह गया ।
है दूर आधा राज्य, ग्रामों की कथा भी दूर है ।
मुझको सुई की नोक भी देना नहीं मंजूर है ।। ५ ।। फिर भी नरोत्तम धीरता से मुसकराते ही रहे । योगेश अपनी युक्तियों से कुछ सिखाते ही रहे ॥
होगा भविष्य महाभयंकर यह दिग्वाते ही रहे ।
दुर्भाग्य पर सौभाग्य के अक्षर लिग्वाते ही रहे ॥ ६ ॥ अपमान सहकर शान्ति का संगीत गाते ही रहे । था दुष्ट दुर्योधन मगर कारुण्य लाते ही रहे ॥
बाहर न आँसू थे मगर भीतर बहाते ही रहे ।
माता अहिंसा के लिये आँसू गिराते ही रहे ॥ ७ ॥ आखिर न समझौता हुआ श्रीकृष्ण को आना पड़ा । अपने बचाने के लिये कौशल्य दिखलाना पड़ा ॥
आतिथ्य छोड़ा कौरवों का वे विदुर के घर गये । ___ भाजी मिली रूखी मगर कृतकृत्य उसको करगये ॥ ८ ॥ दिन रात तैयारी तभी दोनों जगह होने लगी। देवी दया तब आँसुओं से नयन मुख धोने लगी।