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दूसरा अध्याय
हरि-गीतिका अन्याय का कर सामना, सब मोह ममता छोड़ दे। अपना पराया कौन है ? संबंध सारा तोड़ दे ॥ है द्रोपदी तेरी नहीं, तेरा न वह परिवार है। पर एक महिला पर हुआ यह घोर अत्याचार है ॥२६॥ अन्याय को विजयी कभी बनने न देना चाहिये । मवको सदा भूभार हरकर पुण्य लेना चाहिये । हो न्याय का रक्षण सदा अन्याय विजयी हो नहीं । शतान या शैतानियत जगमें न रह पाये कहीं ॥२७॥ हो शत्रु भी न्यायी अगर तो पात्र है वह प्यार का । हा पुत्र भी पापी अगर तो पात्र है संहार का ॥ है न्याय की रक्षा जहां अन्याय का अपमान है । रहना जहां इमान है रहता वहीं भगवान है ॥२८॥ पक्षान्धता मव छोड़ दे, कर न्याय की सेवा सदा । कर्तव्य करने के लिये तैयार रह तू सर्वदा ।। कहता नहीं हूँ कार्य कर तू स्वार्थ-रक्षण के लिये । कहता यही कर्तव्य कर, अन्याय-तक्षण के लिये ॥२९॥ यह मोह माया छोड़ दे, अपना पराया कौन है ॥ निज-कुल कहाया कौन है, पर-कुल कहाया कौन है ।। पर खेल सच्चा खेल जिस में न्याय का ही दाव हो । तृ क्षत्रियोचित कर्म कर जिस में सदा समभाव हो (६९)