Book Title: Khartar Gaccha Ka Itihas
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpmala

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Page 18
________________ १८ wwwww ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ थी कि खुद जिनेश्वरसूरि ने पंचलिंगीप्रकरण, वीरचरित्र, निर्वाण लीलावती, कथाकोश, प्रमाण लक्षण, षट्स्थानप्रकरण, हरिभद्रसूरिकृत अष्टकों पर वृत्ति आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की, इन ग्रन्थों का रचनाकाल वि. सं. १०८० से १०९५ तक का है जिसमें पाटण के शास्त्रार्थ एवं खरतर शब्द की गन्ध तक भी नहीं है। -जिनेश्वरसूरि के गुरुभाई बुद्धिसागरसूरि ने बुद्धिसागर व्याकरणादि कई ग्रन्थ लिखे पर उसमें इशारा मात्र नहीं किया कि जिनेश्वरसूरि ने वि. सं. १०८० में पाटण के दुर्लभराजा की राजसभा में चैत्यवासियों से शास्त्रार्थ कर खरतर बिरुद प्राप्त किया था। - जिनेश्वरसूरि के शिष्य धनेश्वरसूरि हुये, उन्होंने सुरसुन्दरी कथा आदि कई ग्रन्थों का निर्माण किया पर किसी स्थान पर यह नहीं लिखा कि जिनेश्वरसूरि को खरतर बिरुद मिला था। __- जिनेश्वरसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने संवेगरंगशालादि कई ग्रन्थ बनाये, उसमें भी खरतर शब्द की बू तक भी नहीं है। - जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर अभयदेवसूरि हुये, उन्होंने हरिभद्रसूरि के पंचासक पर टीका रची। जिनेश्वरसूरि रचित षट्स्थान प्रकरण पर भाष्य और कुलकादि कई ग्रन्थों की रचना की पर किसी स्थान पर यह नहीं लिखा कि जिनेश्वरसूरि ने वि. सं. १०८० में पाटण के दुर्लभराजा की राजसभा में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ कर खरतर बिरुद प्राप्त किया था। इतना ही क्यों पर उन्होंने तो अपनी रचित टीकाओं में स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जनेश्वरसूरि चान्द्रकुल में थे। देखिये अभयदेवसूरि कृत श्रीस्थानांगसूत्र की टीका। "तच्चंद्रकुलीनप्रवचनप्रणीताप्रतिबद्धविहारहारिचरितश्रीवर्धमानाऽभिधानमुनिपतिपादोपसेविनः, प्रमाणादिव्युत्पादनप्रवणप्रकरणप्रबन्धप्रणायिनः प्रबुद्धप्रतिबंधप्रवक्तप्रवीणाऽप्रतिहतप्रवचनार्थप्रधानवाक्प्रसारस्य, सुविहितमुनिजनमुख्यस्य श्रीजिनेश्वराचार्यस्य तदनुजस्य च व्याकरणादिशास्त्रकर्तुः श्रीबुद्धिसागराचार्यस्य चरणकमलचंचरीककल्पेन श्रीमदभयदेवसूरिनाम्ना मया महावीरजिनराजसंतानवर्तिना" । इस टीका में जिनेश्वरसूरि, बुद्धिसागरसूरि और अभयदेवसूरि को चंद्रकुल के लिखा है। आगे चतुर्थांग समवायांग सूत्र की टीका भी देखिये। " निःसम्बन्धविहारहारिचरितान्, श्रीवर्धमानाऽभिधान- । सूरीन् ध्यातवतोऽति तीव्रतपसो, ग्रन्थप्रणीति प्रभोः ॥५॥

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