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था पर इस प्रकार व्याकरण का नया ग्रन्थ रचने में बहुत समय लगा होगा। दूसरा पाटण से जावलीपुर आना भी असंभव है, कारण जिस समय जिनेश्वरसूरि पाटण गये थे तो वहाँ चातुर्मास भी किया था, अब खरतरों के लिये एक मार्ग हो सकता है कि जैसे दुर्लभराजा भूत होकर दो वर्षों के बाद खरतर बिरुद देने को आने की कल्पना के साथ जिनेश्वरसूरि ने दो रुप बना कर आप जावलीपुर में रहे और दूसरे रुप को पाटण भेजने की कल्पना कर लें तो आकाशकुसुम की तरह खरतर बिरुद मिलना साबित हो सकता है और इसके लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं रहेगी।
सारांश यह है कि न तो वि. सं. १०८० में पाटण में राजा दुर्लभ का राज था और न सं. १०८० में जिनेश्वरसूरि पाटण गये थे और न खरतरों के किसी प्राचीन ग्रन्थ में इस बात का उल्लेख ही मिलता है। इस हालत में जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ और खरतर बिरुद की तो बात ही कहां रही?
पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि प्रतिवादियों से शास्त्रार्थ कर एक नामांकित राजा से बिरुद प्राप्त करना यह कोई साधारण बात नहीं है कि जिस बिरुद को वे विजयिता स्वयं एवं उनकी सन्तान भूल जाये और बाद ३०० वर्षों से वह बिरुद प्रकाश में आवे। देखिये जैनाचार्यों ने जिन जिन राजा महाराजाओं से जो जो बिरुद प्राप्त किये है वह उनके नाम के साथ उसी समय से प्रसिद्ध हो गये थे जैसे :
१. बप्पभट्टसूरि को - वादी-कुञ्जर-केसरी बप्पभट्टसूरि । २. शान्तिसूरि को - वादीवेताल शान्तिसूरि । ३. देवसूरि को - वादी-देवसूरि । ४. धर्मघोषसूरि को - वादी चूडामणि धर्मघोषसूरि । ५. अमरचन्द्रसूरि को - सिंहशिशुक अमरचन्द्रसूरि । ६. आनन्दसूरि को - व्याघ्रशिशुक आनन्दसूरि । ७. सिद्धसूरि को - गुरुचक्रवर्ति सिद्धसूरि । ८. जगच्चन्द्रसूरि को - तपा जगच्चन्द्रसूरि । ९. हेमचन्द्रसूरि को - कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि । १०. कक्कसूरि को - राजगुरु कक्कसूरि।। ११. विजयसिंहसूरि को - खड्गाचार्य विजयसिंहसूरि । १२. नेमिचन्द्रसूरि को - सिद्धान्तचूडामणि नेमीचन्द्रसूरि ।
इत्यादि अनेक जैनाचार्यों ने बड़े बड़े राजा महाराजाओं द्वारा बिरुद प्राप्त किये थे, जब जिनेश्वरसूरि के खरतर बिरुद ने कौन सी गुफा में समाधि ले रखी