Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ १९. आदेसेण णेरइएसु जो जीवो खविदकमंसिओ अंतोमुहुत्तेण कम्मक्खयं काहदि त्ति विवरीयं गंतूण णेरइएमु उववण्णो तस्स पढमसमयणेरइयस्स मोह० जहण्णपदेसविहत्ती। एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वतिरिक्ख-मणुस्सअपज्ज०-सव्वदेवा त्ति । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
२०. कालाणुगमो दुविहो-जहण्णओ उकस्सओ चेदि । उकस्सए पयदं । दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्क० पदेस० केवचिरं कालादो निगोदिया पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डक घातके द्वारा पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालमें कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके फिर भी बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार नाना भव धारण करके बत्तोस बार संयम धारण करके, चार बार कषायोंका उपशम करके, पल्यके असंख्यातवें भाग बार संयम संयमासंयम और सम्यक्त्वका पालन करके अन्तिम भवमें एक पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। सातवें मासमें योनिसे निकला और आठ वर्षका होने पर संयमको धारण किया। कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक संयमका पालन करके जब थोड़ी आयु बाकी रही तो मोहनीयका क्षपण करनेके लिये उद्यत हुआ। इस प्रकार जब वह दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें पहुँचता है तो उस जीवके मोहनीयकर्मकी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें भी उक्त क्षपितकोशवाले जीवके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीयको जघन्य प्रदेशविभक्ति जाननी चाहिए।
१९. आदेशसे नारकियोंमें क्षपितकाशवाला जो जीव अन्तर्मुहूर्तके द्वारा कर्मक्षय क रेगा ऐसा वह जीव उलटा जाकर नारकियोंमें उत्पन्न हुआ, उस प्रथम समयवर्ती नारकीके मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। इसी प्रकार सातों नरकों, सब तिर्यञ्च, मनुष्यअपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिये । तथा इसी प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-आदेशसे जघन्य प्रदेशसत्कर्मका विचार करते समय ओघसे जो क्षपित काशवालेकी विधि पीछे बतला आये हैं वह सब विधि यहाँ भी जाननी चाहिये । अन्तर केवल इतना है कि ओघसे जहाँ अन्तमुहूर्तमें दसवें गुणस्थानके अन्त समयको प्राप्त होनेवाला था वहाँ अन्तर्मुहूर्त पहले यह उस मार्गणाको प्राप्त कर लेता है जिस मार्गणामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म प्राप्त करना है। उदाहरणार्थ कोई ऐसा क्षपितकौशवाला जीव है जो तदनन्तर क्षपकणि पर ही चढ़ता पर इकदम परिणाम बदल जानेसे वही तत्काल मिथ्यात्वमें जाता है और मरकर नरकमें उत्पन्न होनेके पहले समयमें जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामी होता है। इसी प्रकार यथायोग्य विचारकर शेष सब मार्गणाओंमें जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामी कहना चाहिये जिससे कर्मोका संचय बहुत अधिक न होने पावे । यहाँ मूलमें जो यह कहा है कि जो अन्तर्मुहूर्तमें कर्मोका क्षय करेगा किन्तु वैसा न करके जो लौट जाता है सो यह योग्यताकी अपेक्षा कहा है। अर्थात् क्षपितकर्माशवालेके क्षपकश्रेणिपर चढ़नेके पूर्व समयमें जितना द्रव्य सत्त्वमें रहता है उतना जिसका द्रव्य सत्त्वमें हो गया है। अब यदि उससे कम द्रव्य प्राप्त करना है तो वह क्षपकनेणिमें ही प्राप्त हो सकताहै। ऐसी योग्यतावाला जीव यहाँ विवक्षित है।
६२०. कालानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो कारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति का कितना काल
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