Book Title: Kasaypahudam Part 04
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ दाराणि णादव्वाणि भवंति-समुकित्तणा सामित्तं कालो अंतरं गाणाजीवेहि भंगविचओ भागामागं परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं मावो अप्पाबहुए त्ति । समुकित्तणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । श्रोघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. अत्थि भुजगार-मप्पदर-अवद्विदविहत्तिया। सम्मत्त-सम्मामि० अणंताणु०चउक्काणमेवं चेव । णवरि अस्थि अवत्तव्वं पि। एवं सव्वणेरड्य-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरि०पज. पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-मणुसतिय-देव० भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचिं०पज०-तस-तसपज०.पंचमण-पंचवचि० कायजोगि०-ओरालिय०-वेठब्धिय-तिष्णिवेदचत्तारिक०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचले०भवसि०-सण्णि-आहारित्ति ।
६८. पंचिं०तिरिक्खअपञ्जत्त० छव्वीसं पयडीणमोघं । सम्मत्त-सम्मामि० अत्थि अप्पदरं चेव । अणंताणु०चउक० अव्वत्तव्वं णथि । एवं मणुसअपज० सव्वएइंदियसव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज ०-सव्वपंचकाय०-तसअपज्जत्त-ओरालियमिस्स-वेउब्वियमि०-कम्मइय०मदि-सुद-विहंग-मिच्छादि० असण्णि-अणाहारि ति ।
भुजगार स्थितिविभक्तिमें तेरह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहत्व । उनमेंसे समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तियोंके धारक जीव हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका कथन इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनका अवक्तव्य भंग भी है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तियच, पंचेन्द्रियतियच, पंचेन्द्रियतियचपर्याप्त, पंचेन्द्रियतियचयोनिमती, सामान्य ममुष्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यिनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रारस्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, स, त्रस पर्याप्त पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि पाँच लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषाय इनका क्षय हो जाने के पश्चात् पुनः इनकी उत्पत्ति नहीं होती, अतः इनकी स्थितिमें ओघसे भुजगार अल्पतर और अवस्थित ये तीन विभक्तियाँ ही बनती हैं। किन्तु अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना हो जानेके पश्चात् पुनः उत्पत्ति सम्भव है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना हो जानेपर भी उनका सत्त्व पुनः प्राप्त हो जाता है, अतः इन छह प्रकृतियोंमें ओघसे भुजगार आदि चारों विभक्तियाँ बन जाती हैं। मूल में जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें ओघके समान व्यवस्था बन जाती है, अतः उनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा है।
८. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पतर ही है और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अवक्तव्य नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पाँचों स्थावरकाय, बस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञा और अनाहारक जीवोंके जानना।
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