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कितनी स्फूर्ति, ताजगी एवं अप्रमत्तता का कार्य है, यह तो देखनेवाले को ही ध्यान आता है... ऐसे साहित्य प्रकाशन के कारण दोनों मित्र धन्यवाद के पात्र हैं । यह बताकर मैं एक मित्र की अदा से उन दोनों को बिना मांगी सलाह करने की चेष्टा करना रोक नहीं सकता कि पुस्तक का नाम 'कहे कलापूर्णसूरि' के बजाय 'बहे कलापूर्णसूरि' अधिक संगत लगता । कहने और 'बहने' के बीच बहुत अन्तर है । कहने में तन्मयता / निमग्नता आवश्यक नहीं है, बहने में दोनों अनिवार्य हैं । पूज्यश्री की वाचना में 'कथन' की अपेक्षा 'वहन' का अनुभव विशेष है । काश ! मेरा सुझाव सफल हो । मुझे प्रस्तावना लिखने का अवसर दिया गया तब मैं प्रसन्न हुआ, हर्षित हुआ । इससे मेरा वाचना-श्रवण सानुबन्ध बना । यह उपकार किया पंन्यास-बन्धुओं ने... अन्त में उपकृत, कृत-कृत्य बनकर मैं इतना ही कहूंगा... कि 'यह अवसर बार बार आये ।'