________________
श्रमण संस्कृति का स्वरूप
प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति. मुख्य रूप से जह मम न पियं दुक्खं दो प्रकार की विचारधारा में प्रवाहित रही है-१ श्रमण जाणिय एमेष सव्वजीवाण । संस्कृति २ ब्राह्मण संस्कृति ।।
न हणइ न हाणवेइ य, 'समण' प्राकृत भाषा का शब्द है उसीका संस्कृत
सममणइ तेण सो समणो ॥१॥ स्वरूप 'श्रमण" समन और शमन है।
अर्थात्-जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं उसी 'श्रमण' वह है जो अपने उत्कर्ष, अपकर्ष, सुख- प्रकार संसार के अन्य सब प्राणियों को भी दुःख दुःख विकास-पतन के लिये अपने को ही उत्तरदायी अच्छा नहीं लगता है। ऐसा समझ कर जोन स्वयं मानते हुए आत्मोत्कर्ष के लिये निरन्तर स्वयं श्रम हिंसा करता है और न दूसरों से हिंसा करवाता है शील रहता है। अपने उत्थान-पतन में वह किसी और न किसी भी प्रकार की हिंसा का अनुमोदन अन्य को कारण भूत नहीं मानता । अपने सद् करता है और समस्त प्राणीयों को आत्म वत मानता असद् कार्यों को ही वह अपने सुख दुःख का कारण है, वही श्रमण है । समझता है।
णरिय य से कोई वेसो, ___ इस प्रकार आत्मोन्नति के लिये अपनी आत्मशक्ति और अपने सद् असद् कार्यों पर हो स्वाश्रयी और
पि ओ अ सव्वेसु चेव जोवेसु । पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा देने वाली संस्कृति का ही
एएण होइ समणो, नाम है "श्रमण संस्कृति"।
___एसो अन्नो वि पज्जाओ ।।२।। "समन" शब्द से तात्पर्य है सब पर समान भाव अर्थात्-जो किसी से द्वेष नहीं करता, सभी रखने वाला । प्राणी मात्र को आत्मवत समझने और जीवों पर जिसका समान मात्र से प्रम है वह श्रमण "स्वयं जीओ और दूसरों को जीने दो" का उपदेश है। देने वाली संस्कृति को ही ममन संस्कृति कहा गया तो समणो जइ सुमणो, है । इस संस्कृति में वर्ग, वर्ण या जाति पांति का या भावेण जइण होइ पाव मणो । ऊँच नीच का कोई भेद भाव नहीं माना जाता । यहाँ
सयणे य जणे य समो, शुद्ध आचार विचार का ही प्रधानता रहती है यहां
समो अ माणावमाणेसु ॥३॥
अर्थात् -वही श्रमण जिसका मन पवित्र (सुमना) भक्ति नहीं गुण की विशेष महत्व है।
है जिसके मन में कभी पाप पैदा नहीं होता अर्थात् अनुयोग द्वार सूत्र के उपक्रमाधिकार में श्रमण
जो कभी पाप मय चिन्तन नहीं करता और स्वजन शब्द के निर्वचन पर निम्न प्रकार से प्रकाश डाला या पर जन में तथा मात्र या अपमान में भी अपने गया है :
बुद्धि का संतुलन नहीं खाता, वह श्रमण है।
Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com