Book Title: Jain Shraman Sangh ka Itihas
Author(s): Manmal Jain
Publisher: Jain Sahitya Mandir

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Page 16
________________ १६ जैन श्रमण संघ का इतिहास ID National AKISTAININD-CominIA OMINISTINRIT<Tople of I2 T ID=COMMUNICATI ON:MISONIJ !MIdoli CINuTH TIN INDompu देव साक्षात् परमेश्वर स्वरूप है। इसके प्रमाण भी लिंग की पूजा करते थे, शासन था।" परन्तु उसी आर्य-प्रन्थों में पाये जाते हैं। अर्हन्त परमेश्वर का समय में सर्वा ऊपरी भारत में एक प्राचीन, सभ्य, वर्णन वेदों में भी पाया जाता है। रिषभदेव का दार्शनिक और विशेषतया नैतिक सदाचार व कठिन नाती मरीचि प्रकृतिवादी था और वेद उसके तत्वा. तपस्या वाला धर्म अर्थात् जैनधर्म भी विद्यमान था, नुसार हो सके, इस कारण ही रिग्वेद आदि ग्रंथों जिसमें से स्पष्टतया बाह्मण और बौद्ध धर्मों के की ख्याति उसी के ज्ञान द्वारा हुई है । फलतः प्रारम्भिक सन्यास भावों की उत्पत्ति हुई । भार्यों के मरीचि रिषि के स्तोत्र वेद, पुराण आदि ग्रन्थों में हैं गंगा क्या सरस्वती तक पहुँचने के भी बहुत समय और स्थान २ पर जैन तीर्थङ्करों का उल्लेख पाया पूर्ण जैनी अपने २२ बौद्धों-संतो तीर्था करों द्वारा-जो जाता है, तो कोई कारण नहीं है कि वैदिक काल में ईसा से पूर्व की ८-६ शताब्दी के २३ वें तीर्था कर जैनधर्म का अस्तित्व न मानें।" श्री पार्श्वनाथ से पहले हुये थे--शिक्षा पा चुके थे। (६) मेजर जनरल जे. जी. आर. फार लांग एफ. आर. एस. ई, एफ. आर. ए. एस. एम. उक्त विद्वानों के अभिप्रायों से यह बिल्कुल स्पष्ट ए. डी. 'शार्ट स्टडीज इन दी साइन्स आफ हो जाता है कि जैनधर्म अति प्राचीन धर्म है। ये कम्पेरीटिव रिलिजन्स, के १० २४३ में इतिहासकार, संशोधक और पुरातत्व के ज्ञाता अजैन लिखते हैं--- हैं अतएव पक्षपात की आशंका नहीं हो सकती। इन अनुमानतः ईसा से पूर्व के १५०० से ८०० वर्ष विद्वानों ने अपने निष्पक्ष अनुसन्धान के आधार पर तक बल्कि अज्ञात समय से सर्व उपरी पश्चिमीय, अपने अभिप्राय व्यक्त किये हैं। इससे यह भलि उत्तरीय, मध्यभारत में तूरानियों का “जो आवश्यक- भांति प्रमाणित हो जाता है कि जैनधर्म सृष्टि-प्रवाह तानुसार द्राविड कहलाते थे, और वृक्ष, सर्प और के समान ही अनादि है, भतएव प्राचीन है। Sarea Shree Sudhammaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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