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जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख
__ इतिहासकारों के अनुसार प्राचीनकाल में दस्तावेज आदि भी भोजपत्र पर ही लिखे जाते थे। इसीलिये उसे (दस्तावेज को) संस्कृत में भूर्जम् भी कहते हैं। इसी आधार पर उसे भोज कहने लगे।
तीसरी सदी (ईस्वीं) में भोजपत्रों पर लिखित धम्मपद-ग्रन्थ भी तुर्किस्तान में मिला था। अविभाजित काश्मीर के गिलगित के समीपवर्ती नौपुर ग्राम में भी सन् १६३१ के आसपास अनेक भोजपत्रीय पाण्डुलिपियाँ भूमि में गड़ी हुई एक पेटिका में एक चरवाहे को मिली थीं। गिलगित में मिलने के कारण उन पाण्डुलिपियों का नामकरण भी गिलगित-मैन्युस्क्रिप्ट्स पड़ गया। इन्हें छठवीं-सातवीं सदी (ईस्वीं) का बताया जाता है। इतिहास की दृष्टि से इनका विशेष महत्व है।
- भोजपत्र को संस्कृत में लेख्यवृक्ष भी कहते हैं क्योंकि प्राचीनकाल में ज्ञानराशि को अंकित करने के लिये सुकुमार होने के कारण भोजवृक्ष की छालों को काम में लाया जाता था। उसे पवित्र मानकर धार्मिक कार्यों तथा जन्म-पत्री आदि बनाने में भी उसी का प्रयोग किया जाता था। भूत-प्रेत आदि की बाधाओं से बचने के लिये मन्त्रादि लिखकर उन्हें तावीज में रखकर बाँधा जाता था। आज भी उसके प्रति समाज में वही विश्वास है।
भारत में भोज-वृक्ष हिमालय की ठण्डी चोटियों पर मिलते हैं। आधुनिक वनस्पति-शास्त्र में इसे बेतुला अतिलिस डी-डौन कहते हैं। संस्कृत में उसे भूर्ज (भूः ऊर्जाः अस्य, ऊर्जः बल प्राणमयोः) कहते हैं। अंग्रेजी में वही बर्च या जर्मन भाषा में बर्चा या बर्क कहलाता है। लिथुआनियन में "वेरजस" और स्लावोनियन में उसे ब्रेजा कहते हैं। ये सभी शब्द भूर्ज शब्द से मेल खाते हैं। भोजवृक्ष की नौकाएँ भी बहुत हल्की किन्तु ठोस बनती थीं। पुराकाल में भोजपत्र के कपड़े भी बनाये जाते थे।
__ आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ में इसे कुष्ठनाशक तथा मेह, पाण्डु, कफ तथा मेद को नष्ट करने वाला बताया गया है। इसे विविध दवाओं के बनाने के काम में भी लाया जाता है।
भोज-वृक्ष की दो जातियाँ होती हैं-(१) विटुला-यूटिलिस और (२) विटुलाएलनोयडिस। इनमें से प्रथम जाति का भोजवृक्ष हिमालय की ऊँची चोटियों पर तथा दूसरी जाति का भोजवृक्ष कम ऊँचाई की पहाड़ियों पर उत्पन्न होते हैं। ईस्वी सन् के प्रारंभिक वर्षों में भी सम्भवतः भोजपत्र पर पाण्डुलिपियाँ लिखी जाती रहीं। ऐसा विदित हुआ है कि उन पर लिखित बौद्धों एवं वैदिकों की कुछ प्राचीन पाण्डुलिपियाँ भी उपलब्ध हुई हैं, किन्तु संभवतः जैनियों की नहीं। हिमवन्त-थेरावली के एक उल्लेख के अनुसार सम्राट खारवेल के पास भोजपत्र पर लिखित एक जैन-पोथी थी, यद्यपि प्राच्य विद्याविद् मुनिश्री पुण्यविजय जी ने उक्त उल्लेख को केवल कल्पनाधारित ही बतलाया है |
३. प्रा.भा.श्र.सं.प्र.४